Friday, September 1, 2017

एकादश व्रत

गांधी जी के एकादश व्रत
 गांधी जी के एकादश व्रत
गांधी जी का जीवन मूल्याधारित रहा है | आत्मानुशासन के लिए उन्होंने कतिपय व्रतों के पालन पर बल दिया है | गांधी जी के अनुसार व्रत का अर्थ है, “अटल निश्चय” | वे यह भी कहते हैं कि समस्त संसार का अनुभव इस बात की गवाही देता है कि ऐसे निश्चय के बिना मनुष्य उत्तरोत्तर ऊपर नहीं उठ सकता |
    जिन व्रतों का गांधी जी ने उल्लेख किया है वे इस प्रकार हैं – (१) सत्य (२) अहिंसा (३) ब्रह्मचर्य (४) अस्तेय (५)) अपरिग्रह (६) अस्वाद (७) अभय (८) अस्पृश्यता निवारण (९) शरीर-श्रम (१०) सहिष्णुता और (११) स्वदेशी |
     इन व्रतों में पहले ५ व्रत पातंजल योग-सूत्र में ‘पञ्च महाव्रत’ के नाम से भारतीय परम्परा में पहले से ही मौजूद हैं | अस्वाद और अभय का भी भारतीय नीतिशास्त्र में उल्लेख है | शेष व्रत – शरीर-श्रम, सर्व-धर्म समानत्व, स्वदेशी और अस्पृश्यता निवारण – समय की मांग को देखते हुए गांधी जी ने सत्याग्रह अनुशासन में अलग से जोड़े हैं |
     गांधी जी के व्रतों की काव्यात्मक प्रस्तुति सर्व प्रथम भवानी प्रसाद मिश्र ने की थी | उनसे प्रभावित होकर और उनसे क्षमा माँगते हुए मैंने भी इन्हें काव्तात्मक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा हूँ |  
     
                                    १ 
                                   सत्य

सर्व प्रथम मैं सत्य की ही
बात करता हूँ  
कि जिसके बरतने के लिए
हम सबसे ही
अपेक्षा की जाती है |
सत्य है उत्पन्न ‘सत’ से
जिसके अर्थ में भाव है होने का
और जो है, सत्य ही है
अतिरिक्त इसके कुछ नहीं.
ईश्वर सत्य है, बेशक
मगर यदि हम कहें –
‘सत्य ईश्वर है’ – तो सत्य के
शायद अधिक नज़दीक हों हम !
हमारे बोलने की पड़ गईं हैं
आदतें कुछ इस तरह की
कि सर्वोच्च को ‘राजा’ कहा हमने
और राजाओं का राजा
बन गया ईश्वर !
किन्तु यदि हम गौर से देखें
मुनासिब नाम ईश्वर का
सत्य, और सत्य है केवल !
सत्य ईश्वर है
उसे चित भी कहा है
क्योंकि इसके साथ है सत-ज्ञान भी
और जैसे सत बिना
चित नहीं है संभव
बिना चित, आनंद की भी
कल्पना हम नहीं कर सकते.
सत, चित और आनंद – तीनों ही
निहित सर्वोच्च सत्ता में
ईश्वर में संमाए हैं ..
सत्य के प्रति आस्था
अस्तित्व का आधार हो
क्रिया कलापों में हमारे
केंद्र में हो सत्य
सत्य ही हो श्वास जीवन का ! 
सत्य पालन के लिए
करनी पड़े कोशिश नहीं
और आत्मिक बिंदु की उस
प्रगति तक हम पहुंचें
कि सत्य का अनुसरण ही
स्वभाव बन जाए हमारा !
सत्य पालन के लिए
सच बोलना बेहद ज़रूरी
किन्तु सब संभावनाएं सत्य की
सच बोलने में खप नहीं जातीं
मन वचन और कर्म से जब
सत्य का पालन करें 
तभी उसकी पूर्णता है |
सीमित बुद्धि के हर व्यक्ति को
मिलता नहीं है सत्य.
अर्थात अपनी पूर्णता में सत्य का साक्षात्कार
हर किसी को हो नहीं सकता
माना कि सच
हर व्यक्ति का अलग होता है
और यह सच, परस्पर मेल भी खाए
ज़रूरी नहीं
पर इससे सत्य के प्रति
आस्था में कमी क्योंकर हो !
सत्य को जिस रूप में पाया है हमने
उसी का पालन करें –
डर और पराजय के लिए
स्थान है कोई नहीं
करना पड़े यदि
मृत्यु का भी वरण सच के मार्ग में
उसे अपनाएं
जैसे राम ने, प्रहलाद ने
हसन, हुसेन औ’ हरिश्चंद्र ने
अपनाया उसे !
सत्य से बढकर नहीं कुछ भी
उसे तो बस अभ्यास की
वैराग्य की, दरकार है ||

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      अहिंसा
              २
            अहिंसा

सरल, सीधा
किन्तु संकरा भी बहुत है
सत्य का पथ, और वैसा ही
अहिंसा मार्ग भी है !
जिस तरह नट
देह को कर संतुलित
तनी रस्सियों पर चले एकाग्रता से
उससे भी अधिक मुश्किल
अहिंसा मार्ग पर चलना 
मानों धार पर तलवार की
संतुलन करना.
पर सतत अभ्यास, कोशिश से
करतब साहसिक यह
नि:संदेह हम दिखा सकते हैं !
नश्वर देह की इस कठिन कारागार में
कैद है जबतक मनुष्य
है नहीं उसकी नियत में
पूर्णता उपलब्ध करना
पर सत्य की कुछ कुछ झलक
मिलती है हमें निश्चित ही
अहिंसा के मार्ग में !
बहुत सी कठिनाइयां हैं
बहुत से रोड़े बिछे हैं
वाह्य बाधाएं हमें घेरे खड़ी हैं
लालच और घृणा में
लोग हमको रोके हैं मार्ग से
किन्तु अपनाकर हिंसा
जूझना इनसे, या मिटा देना इन्हें
लक्ष्य से अपने होना है विरत !
व्यक्ति कितना भी बुरा हो
मार कर उसको हम
अंत नहीं कर सकते बुराई का
इसके लिए तो झांकना होगा हमें अन्दर
पहचानना होगा उन दुश्मनों को
बाधक जो रहे हैं सत्य के पथ के !
किन्तु कैसा दुर्भाग्य है यह
हम लड़ रहे हैं वाह्य दुश्मन से
और बैरी जो बसे हैं हमारे अन्दर
पहचानने से मना कर रहे हैं उन्हें !
दंड से जो सुधर जाए हमेशा के लिए
व्यक्ति ऐसा है नहीं कोई
विजय तो प्रेम से ही संभव है
और इसके हेतु आवश्यक
धैर्य है, दुःख-वहन है !
दुश्मनों को
मित्रता की परिधि में लाना ही
कर्म-कौशल है !
कर्तव्य को समझें
मिटाएं अहं को
आसक्ति को त्यागें
तभी यह काम संभव है !
किसी को भी
हानि पहुंचाने से बचना
अहिंसा की न्यूनतम अभिव्यक्ति है
अहिंसक आचरण में तो
अशुभ इच्छा पालना भी गलत है
बुरा सोचना भी
हिंसा, पाप है !
देहधारी मनुज लेकिन
रह नहीं सकता
बिना किए हिंसा
देह पालन में करोड़ों जीव
खपा देते हैं हम – अनजाने, अचेतन !
कभी जी में आता है कर लें आत्मह्त्या
किन्तु यह भी तो नहीं है हल !
रास्ता बस एक ही है –
हिंसा के दायरे को कम करें
अपने प्यार को भरसक पनपने दें
आसक्ति से हम मुक्त हों !
अहिंसा सत्य
दोनों ही बसे हैं एक दूजे में
सिक्का एक ही है
पहलू अलग हैं –दो.
पहचानना मुश्किल है
पट कौन सा है और कौन है चित 
फिर भी मैं तो कहूँगा यही
सत्य साध्य,
साधन अहिंसा है !
अहिंसा है हमारी पहुँच के अन्दर
उसे यदि साध लें
अपने परम कर्तव्य
सत्य तक निश्चय ही पहुंचेंगे...
तय है ||
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              २
            अहिंसा

सरल, सीधा
किन्तु संकरा भी बहुत है
सत्य का पथ, और वैसा ही
अहिंसा मार्ग भी है !
जिस तरह नट
देह को कर संतुलित
तनी रस्सियों पर चले एकाग्रता से
उससे भी अधिक मुश्किल
अहिंसा मार्ग पर चलना 
मानों धार पर तलवार की
संतुलन करना.
पर सतत अभ्यास, कोशिश से
करतब साहसिक यह
नि:संदेह हम दिखा सकते हैं !
नश्वर देह की इस कठिन कारागार में
कैद है जबतक मनुष्य
है नहीं उसकी नियत में
पूर्णता उपलब्ध करना
पर सत्य की कुछ कुछ झलक
मिलती है हमें निश्चित ही
अहिंसा के मार्ग में !
बहुत सी कठिनाइयां हैं
बहुत से रोड़े बिछे हैं
वाह्य बाधाएं हमें घेरे खड़ी हैं
लालच और घृणा में
लोग हमको रोके हैं मार्ग से
किन्तु अपनाकर हिंसा
जूझना इनसे, या मिटा देना इन्हें
लक्ष्य से अपने होना है विरत !
व्यक्ति कितना भी बुरा हो
मार कर उसको हम
अंत नहीं कर सकते बुराई का
इसके लिए तो झांकना होगा हमें अन्दर
पहचानना होगा उन दुश्मनों को
बाधक जो रहे हैं सत्य के पथ के !
किन्तु कैसा दुर्भाग्य है यह
हम लड़ रहे हैं वाह्य दुश्मन से
और बैरी जो बसे हैं हमारे अन्दर
पहचानने से मना कर रहे हैं उन्हें !
दंड से जो सुधर जाए हमेशा के लिए
व्यक्ति ऐसा है नहीं कोई
विजय तो प्रेम से ही संभव है
और इसके हेतु आवश्यक
धैर्य है, दुःख-वहन है !
दुश्मनों को
मित्रता की परिधि में लाना ही
कर्म-कौशल है !
कर्तव्य को समझें
मिटाएं अहं को
आसक्ति को त्यागें
तभी यह काम संभव है !
किसी को भी
हानि पहुंचाने से बचना
अहिंसा की न्यूनतम अभिव्यक्ति है
अहिंसक आचरण में तो
अशुभ इच्छा पालना भी गलत है
बुरा सोचना भी
हिंसा, पाप है !
देहधारी मनुज लेकिन
रह नहीं सकता
बिना किए हिंसा
देह पालन में करोड़ों जीव
खपा देते हैं हम – अनजाने, अचेतन !
कभी जी में आता है कर लें आत्मह्त्या
किन्तु यह भी तो नहीं है हल !
रास्ता बस एक ही है –
हिंसा के दायरे को कम करें
अपने प्यार को भरसक पनपने दें
आसक्ति से हम मुक्त हों !
अहिंसा सत्य
दोनों ही बसे हैं एक दूजे में
सिक्का एक ही है
पहलू अलग हैं –दो.
पहचानना मुश्किल है
पट कौन सा है और कौन है चित 
फिर भी मैं तो कहूँगा यही
सत्य साध्य,
साधन अहिंसा है !
अहिंसा है हमारी पहुँच के अन्दर
उसे यदि साध लें
अपने परम कर्तव्य
सत्य तक निश्चय ही पहुंचेंगे...
तय है ||
              
            
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                                       ३
                                     ब्रह्मचर्य
दृष्टि है नि:स्वार्थ
सबसे प्रेम करने की, अहिंसा की
वासना से मुक्त
निष्कपट कल्याण सबका साधने की
और यह संभव तभी
व्रत ब्रह्मचर्य धारण करें हम !
व्यक्ति जो हैं दास
अपनी वासनाओं के
संतुष्टि में उनकी लगे रहते
और अपने प्रेम को,
वासना की हो जहां संतुष्टि
उस पात्र में
उड़ेल देते हैं
प्रेम उनका इस तरह
व्यक्ति और परिवार को
सीमित परधि में कैद रखता है
वृत्ति उनकी स्वार्थ से सीमित
”मैं” और “मेरे” दायरे में
घूमती रहती
दूसरों के लिए मन में
भाव हित, कल्याण, का
होता नहीं जाग्रत !
विवाह की इस विडम्बना से
बचना चाहता है जो पुरुष
उसको ज़रूरी है कि अपने प्रेम को
वासना से मुक्त कर दे वह  
दंश तोड़े स्वार्थ का
और सबको प्यार से
अपनी परिध में सम्मिलित कर
सर्व सेवा में लगाए मन !
वासना से रहित निश्छल प्रेम
परिवार को भी मुग्ध करता है
क्योंकि यह नि:स्वार्थ होता है
परस्पर द्वंद्व का, संघर्ष का
अवसर नहीं बनता !
देह पर रखना नियंत्रण
मांग होती ब्रह्मचारी की-  
किन्तु यदि विकृत विचारों से
भरा हो मन
लाभ इसका मिल नहीं पाता.
अनुसरण तो देह आखिर
करेगी मन ही का – निश्चित है !
है ज़रूरी इसलिए
भटक जाए यदि कभी मन
पाप के पथ पर
साथ हम देवें नहीं उसका
असहयोग हम उससे करें
मन मानी न करने दें उसे !
वासनाएं पाशविक सारी
नियंत्रित रहें-
है इतना ही नहीं
कहीं अधिक अर्थ से संपन्न होता  
व्रत ब्रह्मचर्य
यह तो सभी ज्ञानेन्द्रियों का
नियंत्रण है, इसमे
स्वाद, स्पर्श, श्रवण, घ्राण, दृष्टि
संयमित रहती हैं सभी
बिना ऐसे संयमन समग्र के
हो नहीं सकतीं निरोधित इन्द्रियाँ
भले ही स्वांग हम करते रहें !

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                                        ४
                                      अस्तेय
व्यक्ति चोरी करे
और यह दावा भी करे कि
उसको सत्य का ज्ञान है
चोरी करे और बोले
ह्रदय में प्रेम का वास हैं
असंभव सी बात है !
जहां प्रेम और सत्य है
वहां सती के लिए
कोई स्थान नहीं है
जिस तरह अस्वाद और ब्रह्मचर्य
निहित है सत्य में
सम्मिलित है वह अस्तेय में भी |
भागीदार बन ही जाता है व्यक्ति
फिर भी कभी न कभी
जाने अनजाने चोरी का.
बिना पूछे
दूसरों की वास्तु पार कर देना
नि:संदेह चोरी है ...
पर चोरी तो हम प्राय:
स्वयं अपने से भी करते हैं
अपने ही बच्चों से चुरा कर खाते हैं
अँधेरे में रखते हैं परिजनों को !
कितनी ही चीजें हैं
ज़रूरत नहीं जिनकी हमें
ललचाई आँखों से फिर भी
उन्हें देखते हैं
प्राप्त करने की उक्तियाँ लगाते हैं
खरीदते हैं, माँगते हैं
और मौक़ा मिलते ही
चुराने से भी उन्हें बाज़ नहीं आते !
आवश्यक-अनावश्यक
आवश्यकताएं तो अनंत हैं
जितनी भी बढ़ाओ, बढ़ जाती हैं
पर घट भी सकती हैं
घटाओ यदि यत्न से !
आवश्यकताओं पर लगाएं लगाम हम
उचित और अनुचित में तमीज़ करें
अचौर्य के लिए
ज़रूरी है जितना
केवल उतना ही अर्जित करें !
अधिक अर्जन
और दूसरे के हक़ को छीनना
यह भी तो चोरी है भाई !
इतना सारा दुःख
इसलिए भी बढ़ा है दुनिया में
कि दूसरों की अनदेखी कर
बढाई हैं ज़रूरते अपनी
और चुरा की हैं ज़रूरतमंदों की
चीजें ज़रूरी !  
स्थूल रूप से तो
अक्सर हम चोरी करते ही हैं
पर चोरी का आकार
एक सूक्ष्म भी है
वह मन से भी होती है
और चोरी की यह किस्म
कहीं अधिक खातरनाक होती है
दूषित करती है यह
मनुष्य की आत्मा को
पतन का मार्ग बनती है !
औरों की संपत्ति पर लालची निगाहें
कुशंकाएँ भविष्य की
गैर-ज़रूरी चीजों को
प्राप्त करने की कामनाएं –
चोरी के ही रूप हैं सब ! 
                                        ४
                                      अस्तेय
व्यक्ति चोरी करे
और यह दावा भी करे कि
उसको सत्य का ज्ञान है
चोरी करे और बोले
ह्रदय में प्रेम का वास हैं
असंभव सी बात है !
जहां प्रेम और सत्य है
वहां सती के लिए
कोई स्थान नहीं है
जिस तरह अस्वाद और ब्रह्मचर्य
निहित है सत्य में+
सम्मिलित है वह अस्तेय में भी |
भागीदार बन ही जाता है व्यक्ति
फिर भी कभी न कभी
जाने अनजाने चोरी का.
बिना पूछे
दूसरों की वास्तु पार कर देना
नि:संदेह चोरी है ...
पर चोरी तो हम प्राय:
स्वयं अपने से भी करते हैं
अपने ही बच्चों से चुरा कर खाते हैं
अँधेरे में रखते हैं परिजनों को !
कितनी ही चीजें हैं
ज़रूरत नहीं जिनकी हमें
ललचाई आँखों से फिर भी
उन्हें देखते हैं
प्राप्त करने की उक्तियाँ लगाते हैं
खरीदते हैं, माँगते हैं
और मौक़ा मिलते ही
चुराने से भी उन्हें बाज़ नहीं आते !
आवश्यक-अनावश्यक
आवश्यकताएं तो अनंत हैं
जितनी भी बढ़ाओ, बढ़ जाती हैं
पर घट भी सकती हैं
घटाओ यदि यत्न से !
आवश्यकताओं पर लगाएं लगाम हम
उचित और अनुचित में तमीज़ करें
अचौर्य के लिए
ज़रूरी है जितना
केवल उतना ही अर्जित करें !
अधिक अर्जन
और दूसरे के हक़ को छीनना
यह भी तो चोरी है भाई !
इतना सारा दुःख
इसलिए भी बढ़ा है दुनिया में
कि दूसरों की अनदेखी कर
बढाई हैं ज़रूरते अपनी
और चुरा की हैं ज़रूरतमंदों की
चीजें ज़रूरी !  
स्थूल रूप से तो
अक्सर हम चोरी करते ही हैं
पर चोरी का आकार
एक सूक्ष्म भी है
वह मन से भी होती है
और चोरी की यह किस्म
कहीं अधिक खातरनाक होती है
दूषित करती है यह
मनुष्य की आत्मा को
पतन का मार्ग बनती है !
औरों की संपत्ति पर लालची निगाहें
कुशंकाएँ भविष्य की
गैर-ज़रूरी चीजों को
प्राप्त करने की कामनाएं –
चोरी के ही रूप हैं सब ! 
वस्तुओं की चोरी तो चोरी है ही,
पर विचारों की ?
वह भी तो चोरी ही कही जाएगी.
दूसरों के भावों को अक्सर
परोसते हैं विद्वत-जन
और अहंकार का अपने करते हैं पोषण
नियम विरुद्ध है यह
असत्य है, पालक असत्य का
सदा विचारवान और विनम्र है ||

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                                       ५
                                     अपरिग्रह
ईश्वर हमें रोज़ की रोटी
प्रदान करता है
और यही वह आस्था है जिस पर
अपरिग्रह का
समूचा भवन टिका है !
सत्य पथ-गामी
कल के लिए चिंतित नहीं रहता
सुविधा संग्रह का
उसके लिए कोई अर्थ नहीं होता.
आज की आवश्यकता से अधिक
अर्जित करना
न सिर्फ अनावश्यक परिग्रह है
चोरी का ही एक प्रकार है, विद्रूप है
स्तेय का ही एक रूप है !
कितनी ही वस्तुएं
हम करते हैं इकट्ठी
गोदामों में भरते हैं इफरात से
और भूल जाते हैं
न दान न भोग करते हैं उनका.
छोड़ देते हैं उन्हें
नष्ट हो जाने के लिए...
फिजूल और फालतू ऐसे संग्रह
निर्धनों की छीनते हैं रोटियाँ
मोहताज बनाते हैं उन्हें
दाने दाने के लिए !
ज़रूरतमंदों की ज़रुरत
धरी की धरी रह जाती है
कंगाल
और कंगाल होता चला जाता है
और रईसों की रईसी
बेलगाम बढ़ती चली जाती है.
बेशक, यह तो असंभव है
कि आदमी बन जाए चिड़िया
न फ़िक्र हो रोटी की उसे
न कपडे और मकान की   
पर विवेक उसका
इतना तो काम कर ही सकता है
कि एक हद के बाद
समझे वह ज़रूरत
संग्रह पर विराम की
और खुद ही तय करे –
कितनी आवश्यकता है उसे
और कितनी चीजें हैं उसके काम की !
निकम्मी और बेकार चीजों का मोह
यदि छोड़ देता है आदमी
अपनी ज़रूरतों पर
लगाता है थोड़ी लगाम
तो सच मानिए
पाट सकता है वह खाई
आदमी और आदमी के बीच की !
समानता लाने की बस,
यही एक सूरत है.
सिर्फ वस्तुओं में ही नहीं
संकल्प और ज्ञान में भी तो
ज़रूरी है अपरिग्रह –
वहां भी यह अपरिहार्य है !
अनावश्यक सूचनाओं का
भण्डार बना लेना अपने मस्तिष्क को
और ऐसे ज्ञान को जो पथभ्रष्ट करे
सहेज कर रखना
कूट-व्यापार करना ज्ञान का
अज्ञान का ही एक प्रकार है
अहंकार, जड़ता और पाप का
द्वार है !
वास्तविक ज्ञान तो वह है जो
हमें सात्विक कर्म
और सर्व-सेवा की ओर प्रेरित करे
प्रभु की तरफ
थोड़ा और उन्मुख करे !

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                                       ६
                                     अस्वाद
परम्परागत रूप से अस्वाद को
एक स्वतन्त्र मूल्य का स्थान
हासिल नहीं है
ब्रह्मचर्य के अनुसरण में, किन्तु
यह सहायक ही नहीं
अनिवार्य भी है,
यद्यपि साधना इसे
सरल नहीं है !
दुनिया के अधिकतम लोग
सिर्फ भोजन के लिए जीते हैं
ग्रहण करते हैं उसे वे
बिन विचारे
विषयासक्ति उन्हें सोचने ही नहीं देती
खाद्य क्या, अखाद्य क्या
और खाने की मात्रा क्या !
यह इतना ही गलत जैसे
स्वाद से वशीभूत
हम स्वादिष्ट दवा ले लें कोई
मात्रा से कहीं अधिक !
मात्राएँ नियत हैं
दवा की भी और भोजन की भी
देह के अनुपात में
स्वाद-अस्वाद से ऊपर उठकर
संतुलित भोजन ही दरकार है |
पर यह विडम्बना कैसी
की स्वाद के मारे हम
स्वाद ही भूलते जा रहे हैं भोजन का
नमक ज्यादह या नमक कम !
स्वाद के नापने का
बस यही बन गया है एक मात्र मापदंड
ज़रुरत के अनुसार 
सही भोजन सही मात्रा 
दुरुस्त रखती है देह को 
जो आवश्यक उपकरण है
सर्व सेवा का 
कर्मशीलता,कर्म-योग का 
मर्म भी यही है अस्वाद का |                                                                                                                                          
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                                    अभय
दान दामादि
कुछ संपदाएं हैं जिन्हें
कृष्ण ने गीता में दिया है मान  
और उनमें सर्वप्रथम
मिला है अभय को स्थान !
यों तो सभी
संपदाएं हैं देवी, किन्तु
यह अभय ही तो है
जो अपरिहार्य है
अन्य गुणों की रक्षा के लिए
सर्वदा तैनात है !
सत्य और प्रेम की तलाश में
जो भी जब निकला है
निडर होकर ही निकला है
संकरे और कठिन इस मार्ग पर
भय रहित होना
पहली शर्त है इस खोज की
सत्य के प्रयोग की !
यह पथ नहीं है कायरों के लिए
चल पाते हैं इस पर
वीर पुरुष ही केवल
और आगे बढ़ते हैं वे,
तलवार नहीं,
अभय का हथियार लेकर !
वाह्य डरों से मुक्त होना
रोग के, चोट के  
निंदा और मृत्यु के –
जो सारे डर होते हैं हमारे मन में
उनसे पार पाना ही
भय से रहित हो जाना है |
सत्य के मार्ग पर
तत्पर रहता है मनुज
बड़े से बड़े बलिदान हेतु
बिना उफ़ किए, बेझिझक |
बाहरी डरों का अतिक्रमण
ज़रूरी है बेशक, पर अपनी
आतंरिक और पाशविक वृत्तियों पर
विजय पाना भी,
कठिन होते हुए भी अनिवार्य है !
जाने-अनजाने, समय-असमय
उभर आती हैं ये वृत्तियाँ
बिन बताए कभी क्रोध में
कभी काम, तो कभी लोभ, मोह में !
सभी का केंद्र हमारी ही काया है
शरीर के आस-पास ही
मंडराती हैं ये वृत्तियाँ !
आसक्ति यदि हम छोड़ दें देह की
धन की और परिवार की
भोगें ऐश्वर्य सारे
बिना किसी ममता और लगाव के –
“तेन त्यक्तेन भुन्म्जीथा:”
मार्ग यदि अपनाएं उपनिषद् का -
क्यों सताए भय हमें फिर !
अभय-वन में सदा हम विचरण करें
खोज लावें सत्य का पथ !
जिसपर चलें सब !

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                                       ८
                                    अस्पृश्यता
अस्वाद की तरह
यद्यपि यह सम्मिलित नहीं है
परम्परागत व्रतों में
पर अस्पृश्यता निवारण
आज समय की मांग है
समय की ज़रुरत है !
धर्म की दुहाई देकर
अकारण ही हम हिन्दुओं ने
सफाई में जुटे कुछ वर्गों को
अलग थलग कर दिया है
और शुरू कर दिया है
हिकारत से देखना उन्हें.
छूना तक पसंद नहीं किया
स्पर्श यदि हो जाए उनका
तो स्थान और माला जपने का
विधान किया !
बड़ी अजीब बात है
कितने ही साफ़-सुथरे
पढ़े-लिखे क्यों न हों
फिर भी लोग इस वर्ग को  
अस्पृश्य रहते हैं
और सुजात जो अपने को कहते हैं
वे उनकी छाया से भी
परहेज़ करते हैं !
आग तो एक ही है
हम सब चिंगारियां हैं उसकी
फिर क्यों कोई जन्म से अस्पृश्य हो,
कोई अपने कुकर्मों के बावजूद क्षम्य हो...
यह न तो बुद्धि सम्मत है
न विवेकपूर्ण.
धर्म के नाम पर
निपट अधर्म है यह
सारे समाज के लिए महामारी है
जितनी ही शीघ्रता से
छुटकारा मिले इस विकृति से
सबके लिए उतना ही लाभकारी है !
अस्पृश्यता कलंक है
उसे जड़ से मिटाना परम धर्म है
परवाह नहीं करना है
कोई क्या कहता है !
आखिर सभी तो इंसान हैं
सभी को इंसान की तरह देखना है
अपनी कमियों और अच्छाइयों के साथ
सभी प्यार, दुलार के
उतने ही हकदार हैं
जितने कि होते सहोदर हैं !
अस्पृश्यता निवारण
प्रेम की अभिव्यक्ति है
सेवा का रूप है
हमें तो व्यक्ति और व्यक्ति के बीच
मानव निर्मित व्यवधान को पाटना है
नैसर्गिक प्रेम बांटना है !
तथाकथित कोई भी व्याख्या
अस्पृश्यता की –
न धार्मिक होती है और न मान्य है
यह तो अमानवी, अमान्य है
समाज में सभी बुराइयों की खान है !
इस बुराई पर विजय पाना
हमारा लक्ष्य हो
इससे पहले कि यशः हमें बर्बाद करे
यह भस्म हो !

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                                      ९
                                   शरीर-श्रम
रस्किन का ‘अंटू दिस लास्ट’ हो
या लेखन हो टालस्टाय का
शरीर-श्रम पर सबका ही आग्रह है
और गीता भी आखिर यही तो कहती है –
यज्ञ किए बिना भोजन
चुराया हुआ खाना है !
त्तात्पर्य यहाँ नि:संदेह
परिश्रम करके ही रोटी कमाना है !
बाइबिल ठीक ही कहती है
आदमी को मिला है अभिशाप
भोजन के लिए उसे पसीना बहाना है !
कोई करोडपति यदि काम न करे
और पडा रहे बिस्तर पर,
आराम करते करते
आजिज़ तो आ ही जाएगा
कुछ नहीं तो पचाने के लिए खाना,
जिम जाएगा !
तो क्यों न हम सभी
श्रमिकों के साथ
उत्पादक श्रम के भागीदार हों
क्यों न ‘श्रम’ के अनुसार ही
पूंजीपतियों के भी अधिकार हों !
संघर्ष की स्थिति में ताकि
समाधान इससे थोड़ा आसान हो !
शरीर श्रम अभिशाप नहीं
आशीर्वाद है उनको
जो करते हैं उपासना सत्य की
कृषि-कर्म करते हुए, या,
कातते और बुनते हुए या
लोहारी या बढईगीरी करते हुए  
करते हैं जो श्रम-श्रेष्ठ
कैसे कोई बोल सकता है
शरीर श्रम को नेष्ट !
हर इंसान को अपना
सफाई बरदार खुद ही बनना है
ठिकाने अपनी गंदगी को खुद ही लगाना है !
छोटे हों या बड़े
समान रूप से सभी करते हैं विष्ठा
तब क्यों सफाई करने को उसकी
खुद नहीं दिखाते निष्ठा
केवल किसी वर्ग विशेष को  
सौंप देना सारा का सारा  
काम सफाई का
न्याय का तो हरगिज़
नहीं हो सकता है हिस्सा !
सफाई के लिए श्रम
न नीच है न क्षुद्र
हीन तो वह दृष्टि है
जो देखती है इसे कमतर .
हम सब अपने अपने और एक-दूसरे के
सफाई कर्मी हों परस्पर
तो दूरियाँ मिटें
आदमी और आदमी के बीच
भावनाएं असमानता की
कुछ तो मिटें !!


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                                       १०
                                    सहिष्णुता
जब भी करते हैं हम
धार्मिक-सहिष्णुता की बात
दूसरे धर्मों के प्रति रहता है
उसमें एक हीनता का भाव
और अपने धर्म के प्रति
शायद श्रेष्ठता का दंभ !
बहुत अच्छा शब्द तो नहीं है
लेकिन हर पंथ के लिए
यदि सम्मान का भाव रहे मन में
तो क्यों न
सहिष्णुता ही बन जाए हमारा
धर्म और कर्तव्य !
सत्य के खोजी
और प्रेम परोसके वाले
जानते हैं भलीभांति –
सभी धर्म अपूर्ण हैं
लेकिन सभी का लक्ष्य तो एक ही है
नज़दीक परमात्मा तक पहुँचना
या कहें, 
परम सत्य को साक्षात्कार करना |
ऐसे में धर्म और धर्म के बीच
फूट डालने का प्रयत्न
हम क्यों करें
या कि तुलना ही परस्पर क्यों करें ?
क्यों न सभी धर्मों में वर्णित
सद्गुणों को अपनाएं
अपने ही धर्म में रहकर
अन्य सभी के प्रति सम्मान दर्शाएं |
जिस तरह एक ही वृक्ष के
एक ही तने से
प्रस्फुटित हुई हैं अनेक शाखाएं
हम भी तो एक ही परम की
अभिव्यक्तियाँ ही तो हैं !
इसी परम की खोज में लगे हैं
अपनी अपनी तरह से सभी धर्म |
यही तो धर्म-धारण का है मर्म |
सभी की दृष्टि और वाणी अलग है
इसी से मतान्तर है
धार्मिक सहिष्णुता ही ऐसे में
वह आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि है
ले जाती है हमें जो निकट
परमानुभूती के, आस्वादन
अवर्णनीय कराती है|
सभी धर्मों में समानता का सिद्धांत
धर्म की आधारभूत एकता पर
नि:संदेह देता है बल
पर दो धर्मों के अंतर
मिटाने में रहता है असफल
जाग्रत करता है वह हमारे विवेक को
कि पहचान सकें
धर्म के धार्मिक तत्वों को
त्याग दें रूढ़ियों आडम्बरों को |
सहिष्णुता का 
यही तो है रास्ता !!

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                                        ११
                                       स्वदेशी
नियमों का नियम
स्वदेशी युग धर्म है
पालन इसका हो स्वभावत: |
पर कर बैठते हैं प्राय:
इसकी अवज्ञा और अवहेलना
उपेक्षित रह जाता है नियम !
आत्मा तो आत्मिक है
भ्रमवश परन्तु
हम अनात्मिक भौतिक जगत को ही
मान बैठे हैं घर अपना
लेकिन यह तो है केवल एक सपना
उद्देश्य तो हमारा है
अपने स्वाभाविक आत्मिक
स्वरूप को पहचानना !
हम सब अंश हैं एक ही आत्मा के
अत: सर्व-सेवा ही बनता है  
माध्यम आत्मानुभूति का !
क्षमताएं सीमित हैं हमारी
कर नहीं पाते एक साथ
हम सेवा सबकी
जो पड़ोसी है हमारा
वही हो पाता है सेवा का हमारी
प्रथम अधिकारी !
पड़ोसी की अवहेलना 
और जो दूर बसे हैं
सेवा का उनकी ढोंग रचना
स्वदेशी भावना के
विपरीत है सर्वथा |
स्वधर्म का पालन करते हुए
मर जाना है श्रेयस्कर  
किन्तु पर-धर्म निभाना
खतरनाक भी है, गलत है !
गीता का भी यही तो कथन है !
पड़ोसी हमारा सेवाका
प्रथम अधिकारी है, बेशक  
पर नाजायज़ तरीके से
नाजायज लाभ देना उसे
सेवा और स्वदेशी –
दोनों का ही है भद्दा मज़ाक !
स्वदेशी व्रत तो
ज़रिया है अंतत: सभी के हित का
और इसके लिए व्रतधारी
त्याग भी कर देता है
अपने पारिवारिक सुख का !
स्वदेशी तो नियम है नियमों का
खादी व्रत पालन उससे ही निगमित
एक उपमेय, उपनियम है |
भूखे और दरिद्र हैं
भारत के करोड़ों लोग
रहने को निकेतन नहीं, निर्वस्त्र हैं:
उबारने का कंगाली से उन्हें
कौन सा शास्त्र है ?
बस एक ही जवाब है
–खादी अपनाएं हम.
आसान और सर्व-सुलभ बस
यही ज़रिया है
घर घर थोड़ा थोड़ा सूत काता जाए
गरीबी से लड़ने का
चरखे को हथियार बनाया जाए !
गरीबी वह बुरी शै है
जो चोर बनाती है इंसान को
शराब और अफीम के धंधे चलाती है
भूलने को गम नशा करते हैं गरीब
बीमारी और मौत के रहते हैं करीब !
खादी अपनाएं हम
चरखे को हथियार बनाया जाए
यही सर्व-सुलभ साधन है
और इसी में स्वदेशी व्रत का पालन है !
खादी मुलायम नहीं
मोटी, खरखरी है
पर आर्थिक स्वावलंबन के लिए
चीज़ यह खरी है
फैशन की वस्तु नहीं, खादी उपयोगी है
प्रेम और करुणा में पगी गरीब की रोटी है
स्वदेशी व्रत का यह सहज परिणाम है
खादी गरीबी का समाधान है !
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